Wednesday, September 16, 2009

गाँव में क्रांति :चंद्रसागर

गाँव में क्रांति :
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हिमाचल प्रदेश के जिला सिरमौर के सुदूर गाँव मंडवाच (गाताधार) जो की नाहन से ९७ किमी
दूर 'संगडाह' तहसील और 'सांगना' डाकघर के अर्न्तगत पड़ता है/
यहाँ के वर्तमान प्रधान हैं श्री सुखराम शर्मा / २० किमी की कच्ची सड़क पार करके
ब्राहमणों के इस गाँव में जब मै पहुंचा तो चारों ओर का हिमाच्छादित वातावरण
देखकर मै गदगद हो उठा / औपचारिक वार्ता के पश्चात् पता चला यहाँ अभी भी घर -घर
में बकरे की बलि दी जाती है और छुआ-छूत अपने चरम पर है /यहाँ तक की पित्र पक्ष्य
में कोई ब्राह्मण किसी के यहाँ भोजन करना भी पसंद नहीं करता /चार भाईओं में एक
पत्नी -प्रथा अभी भी इस गाँव में प्रचलित है /अर्थात चार भाइयों में कोई एक विवाह करेगा
और शेष तीन भी उसे अपनी पत्नी की तरह व्यवहार करेगा /इक्कीसवीं सदीं में इस
प्रचलन से मै हतप्रभ था /
मैंने सोचा , क्या मै यहाँ कोई क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता हूँ ?
घनघोर वर्षा में मै आद्ध्यात्म के प्रति लोगों का रुझान देखकर आश्चर्य चकित था /
मैंने सोचा भागवत कथा में कोई नहीं आएगा किन्तु पूरा पंडाल खचाखच
भरा था / लोग भीगते हुए कथा श्रवण कर रहे थे / कथा के चौथे दिन अर्थात १०-सितम्बर-२००९
को कथा में गाँव की इन सामाजिक बुराईयों को को मिटाने का मुद्दा उठाया /
उसी दिन रात्री में गाँव के प्रधान ने एक सभा का आयोजन किया और किसी घर
में बकरा न काटने का संकल्प लिया गया/ घर-घर में शौचालय बनाने का संकल्प
लिया गया / आपस में ऊँच-नीच का भेद-भावः मिटाते हुए छुया-छूत मिटाने का तत्काल
निर्णय लिया गया और वह भी सर्व-सम्मति से / कन्यायों
को पाठशाला भेजने का निर्णय भी सर्व- सम्मति से लिया गया और
इसके लिए मै उस प्रधान जी का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ /
एक बकरे की हत्या से लगभग प्रत्येक घर में १० हज़ार रुपये का खर्च होता था /
एक सीजन में लगभग ५ बकरे की बली दी जाती थी /इस हिसाब से अब प्रत्येक
परिवार लगभग पचास हज़ार रुपये बचा सकता है /एक नयी क्रांति का सूत्रपात
किया गया / पचास हज़ार रुपये का बचत किया गया तो पांच वर्ष
में ढाई लाख का मूलधन और ब्याज मिलाकर करीब चार लाख का बचत
कर सकते हैं / इतनी राशि उस गाँव के लिए दो कन्याओं के विवाह के लिए
पर्याप्त है /
यहाँ बहुतायत में आलू- मटर और अखरोट की खेती की जाती है/ पहाडी आलू
का मैदानी क्षेत्रों में बिशेष मांग होता है /और इसका यहाँ के किसानों को अच्छा
मूल्य भी प्राप्त होता है /अस्तु ! ऐसा हर पहाडी गाँव में हो जाए तो विकास की
एक नयी गाथा लिख सकते हैं /
भागवत के अंतिम दिन नाहन से पधारे प्रख्यात योगाचार्य पं श्री देवी सहाय शास्त्री
ने अंतर्राष्ट्रीय ब्राह्मण सभा का सम्मलेन किया जिसमे गाँव में योग भवन बनाने
का निर्णय लिया गया , जिनके निर्देश में ग्राम-वासिओं को योग सिखाकर पूर्ण
स्वस्थ बनाने का संकल्प लिया गया / इस पवित्र कार्य के लिए एक ग्रामीण
भक्त पं कंठी राम ने एक बीघा जमीन दान देने का एलान कर दिया /
मै समस्त ग्राम वासियों को साधुवाद देता हूँ/ पं चंद्रसागर

Saturday, September 5, 2009

"सांख्य" शास्त्र की प्रासंगिकता: पं चंद्रसागर

श्रीमद भागवत महापुराण में भगवान कपिल अपनी माता देवहुति को सांख्य -शास्त्र का
उपदेश करते हैं / वस्तुतः एकादश स्कंध में भी भगवान श्रीकृष्ण , उद्धव को
सांख्य- योग का उपदेश करते हैं/ एक ही शास्त्र का अलग- अलग स्थानों पर स्वयं
भगवान के मुख से प्रतिपादन किया गया है / निश्चित रूप से इसकी अपार महिमा है,
तभी तो भगवान दो बार सांख्य -शास्त्र का निरूपण करते हैं /
किन्तु सांख्य -योग है क्या , भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - सांख्य माने तत्त्वों की गणना /
आत्मा वस्तुतः - तत्त्वतः परमात्मा ही है / जैसे घड़ा तत्त्वतः मिट्टी है , मृत्रिका है ,
उसमे घड़े की आकृति गढ़ी गयी है और भिन्न -भिन्न नाम उसके रखे हुए हैं , वैसे
ही आकृति में उपादान रहता है और नाम बाहर से कल्पित किया जाता है /
देखिये , आप अपने को घड़ा समझते हैं या मिट्टी ?
यदि आप अपने को घड़ा समझते हैं तो आपका जन्म हुआ है /
उसमे कहीं काला दाग भी हो सकता है , वह टूट - फूट भी सकता है
और उसमे मदिरा या गंगा - जल भी भरा जा सकता है /
किन्तु यदि आप अपने को घड़ा-बुद्धि या देह बुद्धि न करके मृत्तिका -
बुद्धि कर लें की मै घड़ा नहीं मिट्टी हूँ , तो न मिट्टी का जल हुआ ,
न मिट्टी में शराब या गंगा -जल रक्खा गया ,न पाप हुआ न
पुण्य हुआ , न राग हुआ न द्वेष हुआ , न सुख हुआ न दुःख हुआ /
जब घड़ा था तब भी माटी और जब फूट गया तब भी माटी ,
माटी के सिवाय और कुछ नहीं /
कपिल भगवान कहते हैं ;-
चेतः खल्वस्य बंधाय मुक्तये चात्मनो मतम् (भाग० ३/२५/१५ )
आत्मा के स्वरुप में न बंधन है , न मुक्ति है /
अपने मन में बंधन की जो कल्पना की गयी है वह अविद्यक है /
अपने स्वरुप को न जानने के कारण ही अपने बंधन की कल्पना होती है /
जब तत्त्व का सम्यक विचार हो जाता है तो मुक्ति तो अपने- आप ही
प्राप्त है /
गुणेषु सक्तं बंधाय रतं वा पुंसि मुक्तये (भाग0 ३/२५१५)
आइये तत्वों की गणना करते हैं / एक होता है 'कार्य ' और दूसरा होता है 'कारण'
इन दोनों के मिश्रण को कहते है 'कार्य- कारण '/पंचभूत 'कार्य' के
अर्न्तगत आते है और प्रकृति उसका 'कारण' है /

दृश्य जगत में जितने भी पशु- पक्षी , वृक्षादी व् मनुष्य दिखाई पड़ते हैं
वे सब के सब पंचभूत के कार्य नहीं है अपितु वे स्वयं पंचभूत रूप ही हैं/
पृथ्वी ,वायु, जल, अग्नि, आकाश ये सभी अंतिम कार्य हैं / इनमे जितनी भी
शक्ल - सूरतें बनती हैं वे सब की सब कल्पित हैं/
क्या किसी शारीर से आकाश अलग होता है? शारीर में सांस एक है ,
आयम एक है, जल एक है और पृथ्वी एक है / इसलिए शरीरों के
अलगाव से तत्त्व में किसी प्रकार का अलगाव नहीं होता /
इसिजिये पंचभूत को 'कार्य' बोलते हैं और प्रकृति को उसका कोई कारण
न होने से 'कारण' बोलते हैं/
अब इन दोनों के बीच में जो पञ्च तन्मात्राएँ (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध) ,
अंहकार और महत्तत्त्व है , ये अपने कारण की दृष्टि से कर्म और कार्य की
दृष्टि से कारण अर्थात -"कार्य-कारण" कहलाते हैं /
इन तीनों तत्त्वों से परे चौथी वस्तु है असंग - साक्षी, शाश्वत- सनातन, चेतन -
आत्मा , जिनसे ये प्रकाशित होते हैं/
इस प्रकार सांख्य की प्रक्रिया से यदि विचार किया जाये की किस प्रकार
प्रकृति से श्रृष्टि उत्पन्न होती है और श्रृष्टि कैसे प्रकृति में मिल जाती है ,
तो संसार की आसक्ति छूट जाती है और सबमे एक ही भगवत तत्त्व नारायण
का दर्शन होने लगता है /तब कैसा राग और कैसा द्वेष , कौन अपना और
कौन पराया / इस प्रकार के ध्यान से संसार की आसक्ति सर्वथा मिट
जाती है / इसी को कहते हैं 'अन्वय-व्यतिरेक' से चिंतन /सबमे प्रकृति
का अन्वय है ,सभी वस्तुयों के बिना भी प्रकृति रहती है और उसमे
सब के सब लीं हो जाते हैं /परन्तु प्रकृति का लोप साधारण दृष्टि
से नहीं होता / इसके लिए योगाभ्यास करना चाहिए / यदि योगाभ्यास
संभव न हो तब भगवान की भक्ति करनी चाहिए /
भक्ति के लिए कपिलदेवजी ने भगवान के स्वरुप का ध्यान करते हुए
कहा :-
संचिन्तयेद भगवतश्चरनार विंदं
वज्रांकुश ध्वजसरोरुह लांछनाढ्यम (भाग०३/२८/२१)
चरणारविन्द से लेकर मुखारविंद पर्यंत और मुखारविंद से
चरणारविन्द पर्यंत भगवान की आकृति का , उनके श्रीविग्रह का
चिंतन करते रहना चाहिए / मन को दौड़ाना चाहिए भगवान के शारीर में /
मन का स्वभाव है भटकना / तो फिर इस मन को बाहर न भटकाकर
धारणा योग के द्वारा भगवान की आकृति में ले आना चाहिए /
ऐसा ध्यान करते-करते मन अपनी मनोरुपता छोड़ देता है और
स्वतः भगवान के विचार में लीन हो जाता है /
मुक्ताश्रयम यर्हि निर्विषयं विरक्तं
निर्वाण म्रिचछति मनः सहसा यथार्चिः (भाग० ३/२८/३५)
जब इस प्रकार मन समस्त भौतिक कल्मष से रहित और विषयों
से विरक्त हो जाता है तो यह दीपक की लौ के समान स्थिर हो जाता है/
जहाँ एक परमात्मा के सिवाय और कुछ नहीं होता /
ब्रम्ह्सूत्र में भी इसका प्रतिपादन किया गया है -
"पटवच्च" (२/१/१९)
वस्त्र बनने से पहले वह सूत्र में अप्रकट रहता है किन्तु बुनने के बाद
वह बस्त्र के रूप में प्रकट हो जाता है / दोनों ही स्थिति में वस्त्र
अपने कारण में विद्यमान है और उससे अभिन्न भी है /
इसी प्रकार यह जगत् उत्पत्ति से पहले भी ब्रम्ह में स्थित है
और उत्पन्न होने के बाद भी उससे पृथक नहीं होता /
सिया राममय सब जग जानी /
करहु प्रणाम जोरी जुग पानी //